दिल्ली का सिंघु बॉर्डर इन दिनों किसान आंदोलन का सबसे बड़ा गवाह बन रहा है। करनाल हाइवे पर जहां तक नजरें जाती हैं, किसानों की ट्रैक्टर-ट्रॉलियों की कतार ही नजर आती हैं। किसानों को यहां पहुंचे नौ दिन पूरे हो चुके हैं और हर बढ़ते दिन के साथ उनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। यह आंदोलन दिनों-दिन न सिर्फ मजबूत हो रहा है बल्कि हर रोज पहले से ज्यादा संगठित भी होता जा रहा है।
शुरुआती दौर में जहां ट्रैक्टर-ट्रॉलियां बेतरतीब खड़ी नजर आती थीं, किसान जत्थों में आपसी तालमेल में कमी दिखती थी, कोई एक बड़ा मंच नहीं था और अव्यवस्था की स्थिति नजर आती थी, वहीं अब सिंघु बॉर्डर पर चीजें काफी व्यवस्थित हो चुकी हैं।
पंजाब के मानसा जिले से आए एक किसान हरभजन मान कहते हैं, ‘यहां का माहौल अब किसी कस्बे जैसे हो गया है जहां सारी चीजों की व्यवस्था है। यहां खाने-पीने की कोई कमी नहीं है, दवाओं और डॉक्टर की कमी नहीं है, अरदास के लिए पूजा स्थल है, रात में स्क्रीन पर फिल्म चलती है और पूरा माहौल किसी मेले जैसा हो गया है। संघर्ष है लेकिन संघर्ष में भी एक जश्न होता है जो यहां देखा जा सकता है।’
आंदोलन के शुरुआती दिनों में जहां किसान अपनी छोटी-छोटी गाड़ियों में सोने और ठंड में ठिठुरने को विवश थे, वहीं अब सिंघु बॉर्डर पर रात बिताने के कई इंतजाम कर लिए गए हैं। यहां अलाव जलाने के लिए लकड़ियां भी पहुंच चुकी हैं और रात को सोने के लिए गद्दे और रजाइयां भी किसानों को मिल चुकी हैं। हालांकि कई किसान ये सामान अपने साथ लेकर ही ट्रैक्टर-ट्रॉलियों में लेकर चले थे, लेकिन जिन लोगों के पास ये सामान नहीं था उन्हें कई गुरुद्वारों और निजी संगठनों की मदद से यह उपलब्ध करवा दिए गए हैं।
पहले के मुकाबले अब प्रदर्शन स्थल पर चिकित्सकीय सुविधाएं भी काफी बढ़ चुकी हैं। यहां दर्जन भर से ज्यादा चिकित्सा शिविर लग चुके हैं जिनमें फार्मासिस्ट से लेकर डॉक्टर तक मौजूद हैं। लोगों का मुफ्त उपचार किया जा रहा है, उनकी मुफ्त जांच हो रही है और दवाएं भी मुफ्त बांटी जा रही हैं।
ऐसा ही लंगर के मामले में भी है। यहां पहुंचे कई किसानों के जत्थे अपना-अपना लंगर चला रहे हैं तो कई बड़े लंगर भी यहां लग चुके हैं जिनमें देश के अलग-अलग हिस्सों के लोगों की भागीदारी है। कहीं यूनिवर्सिटी के छात्र लंगरों में सेवा कर रहे हैं तो कहीं मुस्लिम संगठन किसानों के लिए बिरयानी बना रहे हैं।
किसानों के बीच आपसी संवाद और संचार भी अब पहले से ज्यादा मजबूत होता दिखाई पड़ता है। पहले जहां किसान हर सूचना के लिए सिर्फ मीडिया संस्थानों पर ही निर्भर थे, वहीं अब किसानों के कई वॉट्सऐप ग्रुप बन चुके हैं, बड़े मंच लगा दिए हैं और हर शाम होने वाली बैठकों ने एक औपचारिक रूप ले लिया है, जिससे उन किसानों तक भी सूचनाएं आसानी से पहुंच रही हैं जो सिंघु बॉर्डर से कई किलोमीटर पीछे हरियाणा की सीमा में अपने ट्रैक्टर-ट्रॉलियों के साथ डटे हुए हैं।
प्रदर्शन स्थल पर लोगों की दिनचर्या भी अब व्यवस्थित होने लगी है। यहां पेट्रोल पंप के पास ही कई पानी के टैंकर खड़े हैं, जहां किसान नहाने से लेकर अपने कपड़े धोने तक का काम आसानी से कर रहे हैं। पेट्रोल पम्प की बाउंड्री के साथ ही कपड़े सुखाने की तार भी बांध दी गई हैं। हर शाम को यहां अरदास भी होने लगी हैं, जिस दौरान बड़े-बड़े स्पीकर से गुरुवाणी बजाई जाती है। शाम के लंगर के बाद मंच के पास लगी बड़ी स्क्रीन पर खेती-किसानी से जुड़ी डॉक्यूमेंट्री और फिल्में भी चलाई जाने लगी हैं।
इस किसान आंदोलन पर एक आरोप शुरुआती दौर से ही लगता रहा है कि इसमें सिर्फ पंजाब और हरियाणा के ही किसान शामिल हैं। लेकिन अब यह आरोप भी धूमिल होता दिख रहा है। सिंधु बॉर्डर पर अब देश के कई राज्यों से किसान पहुंचने लगे हैं, जिनमें राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और उड़ीसा से आए किसान मुख्य हैं। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी से आए किसान अमरदीप सिंह कहते हैं, ‘जब से हमने होश संभाला है, किसानों की आर्थिक स्थिति देख कर हम हमेशा परेशान ही रहे हैं।
पूरे देश के किसानों की ऐसी ही स्थिति है। इस बीच पंजाब के किसानों ने आवाज उठाई तो हमें भी हिम्मत मिली। लेकिन जब मीडिया ने पंजाब के किसानों को खालिस्तानी कहना शुरू किया, तब हमने यहां आने का मन बनाया ताकि सबको दिखा सकें कि ये आंदोलन सिर्फ पंजाब का नहीं बल्कि पूरे देश का है।’
मध्य प्रदेश के सिवरी जिले से आए युवा किसान शुभम पटेल कहते हैं, ‘हम मध्य प्रदेश के करीब सात सौ किसान एक साथ ही यहां आए हैं। ये सच है कि यहां ज़्यादा संख्या पंजाब के किसानों की है, लेकिन उसका एक कारण उनकी दिल्ली से नजदीकी भी है। हम लोग 16-17 सौ किलोमीटर दूर से आए हैं तो निश्चित ही उतनी संख्या में नहीं आ सके जितनी संख्या में पंजाब और हरियाणा के भाई आए हैं क्योंकि उनके प्रदेश से दिल्ली काफी नजदीक है। लेकिन हमारी मौजूदगी इस बात का सबूत है कि ये सिर्फ दो राज्यों का आंदोलन नहीं है। हमारी ही तरह यहां महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और उत्तराखंड के किसान भी काफी संख्या में आए हैं। ये सभी किसानों का आंदोलन है।’
शुभम की बात से सहमति जताते हुए उत्तर प्रदेश से आए इकबाल सिंह कहते हैं, ‘ये आंदोलन जितना पंजाब के लिए महत्वपूर्ण है उतना ही हमारे लिए भी है। नए कानूनों में जिस कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात कहीं गई है वो उत्तर प्रदेश में पहले से हो रही है। गन्ना फैक्टरी को हम कॉन्ट्रैक्ट के तहत ही गन्ना देते हैं और उन फैक्टरी ने दो-दो साल से हमें भुगतान नहीं किया है। अगर अन्य फसलें भी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत बड़े-बड़े पूंजीपतियों के पास चली गई तो वो भी पैसा दबा के बैठ जाएंगे और कोई उनकी सुनवाई नहीं करेगा क्योंकि इस बिल में कोर्ट जाने का प्रावधान ही नहीं है।
ऐसा ही MSP के मामले में भी है। अगर सरकार की नियत में खोट नहीं है तो कानून में एक लाइन जोड़ने से क्या दिक्कत है कि MSP से कम पर खरीद एक अपराध माना जाएगा। MSP सिर्फ पंजाब के किसानों की मांग नहीं है, पूरे देश का किसान इसके लिए चिंतित है। बल्कि ये सिर्फ किसानों की लड़ाई नहीं है।
जिस दिन कॉर्पोरेट का एकाधिकार हो जाएगा और सारे संसाधनों पर उनका कब्जा हो जाएगा उस दिन सबसे ज़्यादा नुकसान तो ग्राहक का होगा। किसान ग्राहक नहीं है, वो तो पैदा करता है। वो अपने लिए तो तब भी पैदा करके रख लेगा लेकिन तब सबसे ज़्यादा नुकसान आम ग्राहक का होगा क्योंकि उसे ही महंगे दामों पर अनाज बेचा जाएगा।’
अलग-अलग राज्यों से आए किसानों की संख्या यहां जिस तेजी से बढ़ रही है उसी तेजी से पंजाब के युवाओं और छात्रों की भी संख्या यहां बढ़ती हुई दिख रही है। आंदोलन के नौवें दिन पंजाब में नौजवान भारत सभा और पंजाब छात्र संघ ने घोषणा की है कि उनके हजारों छात्र भी किसानों के समर्थन में दिल्ली पहुंच रहे हैं। पंजाब के मोगा, फरीदकोट, मुक्तसर, जालंधर, अमृतसर, गुरदासपुर, नवाशहर, रोपड, संगरूर और पटियाला से छात्रों के कई समूह किसानों के इस संघर्ष में शामिल होने के लिए निकल भी पड़े हैं।
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source https://www.bhaskar.com/db-original/news/farmers-have-got-mattresses-and-masonry-doctors-are-checking-free-the-film-plays-on-the-screen-at-night-127984956.html
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