कोई व्हीलचेयर से ही सेना का जनरल बना तो किसी ने पैरालिसिस के बाद रिकॉर्ड ऊंचाई से लगाई छलांग - achhinews

Home Top Ad

Responsive Ads Here

Post Top Ad

Your Ad Spot

Post Top Ad

Blossom Themes

Wednesday, 2 December 2020

कोई व्हीलचेयर से ही सेना का जनरल बना तो किसी ने पैरालिसिस के बाद रिकॉर्ड ऊंचाई से लगाई छलांग

संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में हर साल दुनिया के तमाम देश इंटरनेशनल डे ऑफ पर्सन्स विद डिसएबिलिटी मनाते हैं। इसका मकसद है लोगों को डिसएबिलिटी यानी अक्षमता से जुड़े मुद्दों को लेकर जागरूक करना। उनकी गरिमा, अधिकार और कल्याण के लिए समर्थन जुटाना।

इस साल की थीम है- दिव्यांंगों के लिए कोरोना के बाद (पोस्ट कोविड-19) की बेहतर, समावेशी, सुलभ और टिकाऊ दुनिया बनाना। मगर आज हम आपको बता रहे हैं ऐसे अक्षम लोगों की कहानियां, जिन्हें सुनकर बड़े-बड़े सक्षम भी दांतों तले उंगली दबा लें।

अरुणिमा ने नकली पैर के बूते एवरेस्ट फतह किया

अरुणिमा सिंह का नाम और उनकी अद्भुत कहानी किसी से छुपी नहीं। उन्हें 2011 में लुटेरों ने विरोध करने पर चलती ट्रेन से धक्का दे दिया था। उन्हें अपना एक पैर गंवाना पड़ा। दूसरा पैर कई जगह से टूट गया। रीढ़ की हड्डी जख्मी हो गई, मगर वॉलीबाल की इस राष्ट्रीय खिलाड़ी ने नकली पैर के बूते एवरेस्ट को फतह कर सक्षम लोगों की दुनिया को चौंका दिया। अरुणिमा की तरह कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने अक्षमता का चुनौती मानकर न सिर्फ उसे मात दी बल्कि दुनिया को बताया कि सही मायने में अक्षम नहीं बल्कि आम लोगों से ज्यादा सक्षम हैं।

जख्मी मेजर जनरल कार्डोजो ने ब्रिगेड को कमांड किया

मेजर जनरल इयान कार्डोजो बटालियन को कमांड करने वाले पहले डिसएबल्ड अफसर।

भारतीय सेना के जांबाज मेजर इयान कार्डोजो ने 1971 में बांग्लादेश के सिलहट की लड़ाई में पाकिस्तानी सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे। युद्ध में पाकिस्तानी सेना के खिलाफ लड़ते हुए उनका एक पैर लैंड माइन ब्लास्ट में बुरी तरह जख्मी हो गया था।

इलाज नहीं मिला तो उन्होंने अपने गोरखा साथी से कहा कि खुखरी लाकर पैर काट दो, लेकिन वो इसके लिए तैयार नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने खुद ही हिम्मत दिखाई और खुखरी से अपना पैर काटकर शरीर से अलग कर दिया। उस कटे पैर को वहीं जमीन में गाड़ दिया था।

गोरखा रेजीमेंट के मेजर कार्डोजो बाद में भारतीय सेना पहले डिसएबल्ड अफसर बने, जिन्होंने पहले बटालियन फिर ब्रिगेड कमांड किया। सरकार ने पाक युद्ध में बहादुरी के लिए उन्हें सेना मेडल से नवाजा था। एक बार पाकिस्तान के एक युद्धबंदी सर्जन मेजर मोहम्मद बशीर को उनका ऑपरेशन करने का आदेश मिला था।

पहले तो उन्होंने ऑपरेशन कराने से मना कर दिया, लेकिन बाद में पता चला कि भारतीय सेना के पास कोई हेलिकॉप्टर उपलब्ध नहीं है तो वह पाकिस्तानी मेजर बशीर से ऑपरेशन कराने के लिए तैयार हो गए। मेजर जनरल कार्डोजो 1993 में सेना से रिटायर हुए।

वो जिनकी वजह से लाल किले से कुतुबमीनार तक बने व्हीलचेयर रैंप

विकलांगों के लिए सबसे बड़े फैसलों के पीछे जावेद आबिदी की कोशिश है।

जावेद आबिदी विकलांगों के अधिकारों के लिए मुहिम चलाने वाले भारत में पहले व्यक्ति थे। 2018 में उनका निधन हो गया। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में पैदा हुए जावेद को स्पाइन बिफिडा (रीढ़ की हड्डी से जुड़ी एक बीमारी) नाम की समस्या थी, जिसके चलते उन्हें 15 साल की उम्र से ही व्हीलचेयर का इस्तेमाल करना पड़ गया। बचपन में इसका इलाज न होने से उनको नर्वस सिस्टम को नुकसान पहुंचा।

आबिदी का परिवार उन्हें लेकर अमेरिका शिफ्ट हो गया। अपनी समस्याओं के बाद भी जावेद ने राइट स्टेट यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी की और भारत वापस आए। आबिदी ने 1996 में विकलांगों के रोजगार की व्यवस्था के लिए नेशनल सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ एंप्लॉयमेंट फॉर डिसएबल पीपल की स्थापना की थी। उनके प्रयासों से दिसंबर 2016 में विकलांगों से जुड़े कानून में काफी बदलाव किए गए, इसमें डिसेबिलिटी की परिभाषा भी बदली गई।

इसके साथ ही उनके लिए नौकरी, सार्वजनिक जगहों पर आने जाने की सुविधाओं के नियमों में भी बदलाव हुआ है। 1993 में उन्होंने राजीव गांधी फाउंडेशन में काम करना शुरू किया। इसके बाद जावेद ने अपनी संस्था शुरू की जिसका लक्ष्य संसद में डिसएबल लोगों के लिए बिल लाना था। जावेद की अर्जी पर ही सुप्रीम कोर्ट ने पोलिंग बूथों को विकलांग के लिए सहज बनाने का निर्देश दिया था।

उनकी मुहीम के असर से ही लाल किला, कुतुब मीनार और ऐसी तमाम दूसरी ऐतिहासिक इमारतों पर व्हील चेयर रैंप लगाए गए। इसके अलावा जावेद साइन लैंग्वेज को आधिकारिक दर्जा दिलवाने, विकलांगों के उपकरणों को GST से बाहर रखने, शिक्षा, रोजगार, जानकारी बढ़ाने जैसे तमाम कामों में सक्रिय रहे। आबिदी की संस्था ने सिविल सर्विस परीक्षाओं में विकलांगों की भागीदारी सुनिश्चित करवाई।

जिसके हौसले ने व्हीलचेयर पर लिखी कामयाबी की इबारत

व्हीलचेयर टेनिस प्लेयर एच बोनिफेस प्रभु को 2014 में पद्मश्री से नवाजा गया।

एच बोनिफेस प्रभु भारतीय व्हीलचेयर टेनिस खिलाड़ी हैं। चार साल की उम्र में उनका गलत ऑपरेशन हो जाने की वजह से गर्दन के नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया। इस घटना से उनके इरादों में कभी कोई कमी नहीं आई। उनके कड़ी मेहनत का ही नतीजा है कि प्रभु आज व्हील चेयर टेनिस में दुनिया के प्रसिद्ध खिलाड़ियों में से एक हैं।

1998 वर्ल्ड चैंपियनशिप में उन्होंने मेडल जीता था, जिसके बाद भारत सरकार ने उन्हें 2014 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। एच बोनिफेस प्रभु जब छोटे थे तभी से तभी से उन्हें टेनिस खेलने का बहुत शौक था, वो इवान लेंडल और जॉन मैकेनरो के बहुत बड़े फैन थे।

साल 1996 में उन्होंने वर्ल्ड व्हीलचेयर खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया था और शॉटपुट में गोल्ड और सिल्वर मेडल हासिल किया था। बोनिफेस 50 अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में 6 अलग-अलग खेलों में भारत का प्रतिनिधत्व कर चुके हैं। इनमें टेनिस और शॉटपुट के अलावा एथलेटिक्स, जेवेलिन थ्रो, टेबल टेनिस, शूटिंग, डिस्कस थ्रो शामिल हैं।

1996 में व्हीलचेयर खेलों के बाद बोनिफेस प्रभु ने कर्नाटक में लॉन टेनिस एसोसिएशन से संपर्क किया और वहां कोच बन गए। दो साल के भीतर ही उन्होंने प्रतियोगिताओं में भाग लेना शुरू कर दिया था। साल 2007 में एक बार फिर बोनिफेस प्रभु ने सिडनी इंटरनेशनल व्हीलचेयर टेनिस प्रतियोगिता का खिताब जीता और बाद में जापान ओपन और फ्लोरिडा ओपन जैसे खिताब भी जीते हैं।

हादसे ने प्रीति श्रीनिवासन से क्रिकेट छीना तो अपने जैसों की रीढ़ बनकर हुईं खड़ी

प्रीती श्रीनिवासन व्हीलचेयर पर बैठकर दिव्यांगों को दिखा रहीं राह।

प्रीती श्रीनिवासन पहली राष्ट्रीय स्तर की तैराक और तमिलनाडु के अंडर 19 महिला क्रिकेट टीम की कैप्टन थीं। साल 1997 में 17 साल की उम्र में प्रीती ने नेशनल चैंपियनशिप में स्टेट टीम को लीड किया था, लेकिन पुड्डुचेरी में हुए एक हादसे के बाद उनके शरीर की गर्दन से नीचे का हिस्सा पैरालाइज हो गया। प्रीती अपने कुछ साथियों के साथ समुद्र किनारे घूमने गईं थीं।

तभी अचानक एक लहर उनसे ऐसे आकर टकराई जिसने प्रीती की जिंदगी बदल डाली। उस वक्त क्या हुआ आसपास मौजूद किसी को समझ नहीं आया, लहरों में फंसी प्रीती सांस रोककर अपनी जिंदगी बचाने में सफल रहीं। जब प्रीती को अस्पताल ले जाया गया, तब पता चला कि उनका शरीर पैरालाइज हो गया।

इस हादसे ने प्रीती से बहुत कुछ छीन लिया पर उन्होंने अपना दुख भुलाकर जरूरतमंद लोगों की मदद करने की ठानी और ऐसे में 'सोल फ्री ' संस्था का जन्म हुआ। 'सोल फ्री ' एक बहुत मशहूर संस्था है जो विकलांग और जरूरतमंदों को सम्मान की जिंदगी जीने में मदद कर रहा है।

संस्था खासकर महिलाओं को लेकर ज्यादा सजग रहती है। 'सोल फ्री ' का मुख्य उद्देश्य रीढ़ की हड्डी की चोट के बारे में लोगों को जागरुक करना, जरूरतमंदों को डोनेशन के जरिए सपोर्ट सिस्टम दिलवाना, उन्हें शिक्षा और रोजगार दिलाना।

शरीर के चलते ​​नहीं मिला मेडिकल कॉलेज में एडमिशन, बोन मेरो ट्रांसप्लांट करने वाले पहले डॉक्टर बने

डॉक्टर सुरेश आडवाणी भारत में पहला बोन मेरो ट्रांसप्लांट करने वाले ऑन्कोलोजिस्ट हैं।

देश के पहले ऑन्कोलोजिस्ट हैं डॉक्टर सुरेश आडवाणी। 1 अगस्त 1947 को कराची, पाकिस्तान में जन्में डॉ. आडवाणी का परिवार मुंबई के घाटकोपर में बस गया था। आठ साल की उम्र में पोलियो की वजह से सुरेश आडवाणी अस्पताल में भर्ती हुए और वहां डॉक्टर को देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने डॉक्टर बनने की ठान ली।

सोमैया कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने ग्रैंड मेडिकल कॉलेज में एम.बी.बी.एस के लिए अप्लाई किया, लेकिन विकलांग होने की वजह से उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया। डॉ. सुरेश ने हार नहीं मानी और इस सिलसिले में कॉलेज प्रबंधन और मंत्रियों को पत्र लिखकर विनती की, तब उन्हें एडमिशन मिला। डॉ. आडवाणी भारत में पोलियो के उपचार लाना चाहते है और मास्टर डिग्री लेने के बाद उन्होंने ने कुछ दवाएं उपलब्ध करवाई।

कैंसर स्पेशलिस्ट सुरेश आडवाणी का मानना पोलियो उनकी कमजोरी नहीं बल्कि ताकत है और इसी ताकत के सहारे ही उन्हें सफलता मिली। सुरेश आडवाणी ने भारत में बोन मेरो ट्रांसप्लांटेशन की शुरुआत की और देश के पहले ऑन्कोलोजिस्ट बने।

डॉक्टर सुरेश (जसलोक हॉस्पिटल) में कैंसर विभाग के निर्देशक व कैंसर विभाग के चेयरमैन हैं, इसके अलावा टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में चीफ ऑफ मेडिकल ऑन्कोलॉजी हैं और जसलोक हॉस्पिटल में भी उन्होंने ऑन्कोलॉजी डिपार्टमेंट की शुरुआत की है। डॉ. सुरेश ने सबसे पहले नौ साल की बच्ची की बोन-मेरो ट्रांसप्लांट किया था। तब से अब तक कई ऑपरेशन कर चुके हैं। 2002 में भारतीय सरकार ने उन्हें पद्म श्री, 2012 में पद्म भूषण से सम्मानित किया।

पैरालिसिस ने पैर थामे तो 14 हजार फीट ऊंचाई से लगाई रिकॉर्ड डाइव

साईं प्रसाद बच्चों को निशुल्क जीमैट की ट्रेनिंग देते हैं, ताकि अपने पैरों पर खड़े हो सकें।

साईं प्रसाद ऐसे पहले विकलांग हैं जो स्‍काई डाइव करते हैं। 30 साल के साईं प्रसाद ने अमेरिका से कंप्यूटर साइंस में मास्टर्स किया है और इंडियन स्‍कूल ऑफ बिजनेस से एमबीए किया है। जब साईं का जन्‍म हुआ वो पूरी तरह से ठीक थे। 13 साल की उम्र वो पैरालाइज हो गए थे और उनके आधे शरीर ने काम करना बंद कर दिया। लेकिन साईं ने हिम्मत नहीं हारी और 14000 फीट से डाइव करने का लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड उनके नाम है।

साईं ने पहले विकलांग भारतीय के तौर पर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज कराया है। साईं अब तक 200 से ज्यादा बच्‍चों को जीमैट क्रैक करने की ट्रेनिंग दे चुके हैं, वे बच्‍चों से तभी फीस लेते हैं जब उन्‍हें ये एग्जाम पास कर लेने के बाद किसी टॉप की यूनिवर्सिटी में एडमिशन मिल जाता है। साईं एशिया के पहले ऐसे डिसएबल हैं जो अंटाकर्टिका तक पहुंचे हैं।

पोलियो ने राह रोकी तो कविताकोश- गद्यकोश और विटामिन जिंदगी के मास्टर बने ललित कुमार

अपने परिवार के पहले ग्रेजुएट ललित कुमार ने पोलियो से संघर्ष पर किताब भी लिखी।

विटामिन जिंदगी के लेखक ललित कुमार को 4 साल की उम्र में पोलियो हो गया था। उनका जन्म नई दिल्ली के पास एक गांव में हुआ था। मिडिल क्लास परिवार में जन्मे ललित के घर में कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था। जब ललित को पोलियो हुआ तब उनके माता-पिता ने पहली बार इस बीमारी का नाम सुना था। वह जिस तरह के समाज में पले-बढ़े वह शारीरिक चुनौतियों से लड़ रहे किसी व्यक्ति के अनुकूल नहीं था।

ललित ने इस लड़ाई में पढ़ाई को अपना हथियार बनाया और अपने परिवार में ग्रेजुएशन करने वाले पहले व्यक्ति बने। कविता कोश, गद्य कोश, वी-कैपेबल डॉट कॉम और दशमलव जैसी परियोजनाओं के संस्थापक ललित कुमार को विकलांग लोगों के लिए रोल मॉडल हेतु साल 2018 में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में काम कर चुके ललित विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं।

देश के पहले ब्लाइंड क्रिकेटर बने शेखर, दो बार वर्ल्ड कप जिताया

शेखर नाइक की हिम्मत ने उन्हें पद्मश्री का सम्मान दिलाया।

बेंगलुरु के रहने वाले शेखर नाइक देश के पहले ब्लाइंड क्रिकेटर हैं, जिनको पद्म श्री सम्मान से नवाजा जा चुका है। शेखर का जन्‍म कर्नाटक के शिमोगा जिले में हुआ। जन्म के समय से ही उनकी आंखों में रोशनी नहीं थी। शेखर ने शारदा देवी स्कूल फॉर ब्लाइंड में पढ़ते समय क्रिकेट खेलना सीखा। सन 2000 ई. में शेखर ने एक टूर्नामेंट में महज 46 गेंदों में 136 रन बनाकर सभी को चौंका दिया और उन्हें कर्नाटक टीम में प्रवेश मिल गया।

सन 2000 में शेखर को कर्नाटक की टीम में और 2002 में भारतीय टीम में शामिल किया गया। 2002 से 2015 तक वे टीम इंडिया का हिस्सा रहे। उन्होंने बेंगलुरु में साल 2012 के टी20 वर्ल्ड कप में और साल 2015 में साउथ अफ्रीका में वनडे वर्ल्ड कप में बतौर कप्तान भारतीय टीम को जीत दिलाई थी। शेखर ने 2010 से 2015 तक भारत की ब्लाइंड क्रिकेट टीम की कप्‍तानी भी की।

एक पैर गंवा बैठे गिरिश ने बैडमिंटन में किया देश का नाम रोशन

पैरा एशिया कप में गोल्ड मेडल जीत चुके हैं शटलर गिरीश शर्मा।

बचपन में एक ट्रेन हादसे में अपना एक पैर गंवाने वाले गिरिश आज बैडमिंटन कोर्ट पर देश का नाम रोशन कर रहे हैं। 16 साल की उम्र में गिरिश ने बैडमिंटन खेलना शुरू किया। पहली दफा रैकेट के हाथ में आते ही उन्होंने इस खेल में महारथ हासिल करने की ठानी। गिरीश को अपने बेहतर खेल की वजह से ही इजराइल और थाईलैंड में देश का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। उन्होंने इस मौके को भुनाते हुए इजराइल में सिंगल और डबल मैच में दो सिल्वर मेडल जीते। उन्होंने अपनी मेहनत से पैरा एशिया कप में गोल्ड मेडल भी जीता।

आतंकियों से 14 लड़कियों को बचाने में चलने लायक नहीं रहे, व्हीलचेयर पर प्रमोशन पाने वाले पहले सैन्य अफसर

व्हीलचेयर पर होने के बाद भी मे. जनरल सुनील राजदान आतंकियों के खिलाफ लगातार रणनीति बनाते रहे।

1994 में कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ एक अभियान के दौरान मेजर जनरल सुनील राजदान की रीढ़ में गोली लगी। वे चलने लायक नहीं रहे, फिर भी उन्होंने मिशन को कामयाब बनाकर दम लिया। यह अभियान बंधन बनाई गईं 14 लड़कियों को बचाने का था। राजदान तब लेफ्टिनेंट कर्नल थे। मिशन के दौरान राजदान ने दो आतंकियों को मार गिराया। तीसरे आतंकी पर गोली चलाई, मगर बच गया। उसने उनके पेट में गोली मार दी।

इससे उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। राजदान को पता था कि वे फिर कभी पैरों पर खड़े नहीं हो सकेंगे, फिर भी मैदान में डटे रहे। बुरी तरह से राजदान ने रेडियो के जरिये अपने लोगों को सूचना दी और पेट पर पट्टी बांधकर खुद को 16 बोतल फ्लूड चढ़ाया, क्योंकि जहां वो थे वहां दूर-दूर तक कोई डॉक्टर नहीं था। आखिर उनकी बहादुरी काम आई और सभी लड़कियों को छुड़ा लिया गया।

राजदान व्हीलचेयर पर प्रमोशन पाने वाले सेना के पहले अफसर हैं। उन्होंने असिस्टेंट चीफ इंटीग्रेटेड डिफेंस (काउंटर टेररिज्म) के रूप में काम करते हुए लश्कर के आतंकवादियों को खदेड़ने में कामयाबी पाई थी। व्हीलचेयर पर होने के बावजूद उन्होंने अंडमान निकोबार में रहकर आतंकवादियों के खिलाफ रणनीति बनाने में अहम भूमिका निभाई।

सेना के कई सम्मान मेजर जनरल सुनील के नाम हो चुके हैं। साल 1996 में सुनील राजदान को आतंकवाद के खिलाफ इस साहसिक शौर्य प्रदर्शन के लिए कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया। उनकी मानसिक क्षमता को देखते हुए सेना ने वर्ष 2010 में उन्हें मेजर जनरल बनाया गया।

1931 के बाद 1981 की जनगणना में शामिल हुए अक्षमता पर सवाल



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
The stars who created history despite physical challenges


source /national/news/indias-most-successful-disabled-celebrities-127968087.html

No comments:

Post a Comment

Post Top Ad

Your Ad Spot